यह उपन्यास भारत और पाकिस्तान के सम्मिलित उर्दू कथा साहित्य में अपनी अनूठी कथा-शैली और इंसानी सरोकारों के संवेदनशील आकलन के कारण अपूर्व स्थिति रखता है । हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक मिथिकों, किस्सों, जातक कथाओं, लोक कथाओ को यथार्थपरक घटनाओं के साथ इस जादू से पिरोया गया है कि कथ्य की सम्प्रेषणीय ता देश-काल को लाँघ गयी है । इस उपन्यास में भारत के विभाजन के बाद सीमा- पार के एक संवेदनशील व्यक्ति की मनःस्थिति, अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने की अकुलाहट, अपनी सांस्कृतिक पहचान की छटपटाहट से उत्पन्न नॉस्टेलजिया, 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान की फिजाँ आम आदमी की प्रतिक्रियाएँ, बौद्धिकों की नपुंसकता, जकड़ती हुई राजनीतिक व्यवस्था की काली छाया का चित्रण बड़ी ही सहज और रोचक भाषा में किया गया है । उपन्यासकार अपने इस उपन्यास में इस भोलेपन से इंसानी नियति से जुड़े अनेक मूलभूत प्रश्न उठाता है कि निरंकुश राजनीति की काईयाँ नजर पहचाने भी और न भी पहचाने । सांस्कृतिक पहचान की अंतर्यात्रा का यह उपन्यास भारतीय पाठकों कौ बेहद रुचेगा ।
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